जब तक वर्ण कुल सब है तब तक ज्ञान उदय नहीं होता।
ब्रह्म ज्ञान पाकर सब वर्ण वर्जित (समाप्त, गौण) हैं।
निरंकार ने मनुष्य को विवेक दिया, सोचने समझने की बुद्धि दी, इसे जिज्ञासा हुई कि मैं कौन हूँ ? किसका अंश हूॅं? इस कठिन प्रश्न का हल सत्गुरु द्वारा प्राप्त हुआ।
मन तू जोत सरूप है, अपना मूल पछान।
तू शरीर नहीं इस परमात्मा का रूप है, इसकी पहचान करनी है। निराकार इन चर्म चक्षुओं से दिखाई नहीं देता, सत्गुरु ने ज्ञान देकर इसके दर्शन कराए और समझा दिया कि इस प्रभु की भक्ति कैसे करनी है। हर ग्रंथ में भक्ति करने का यही एकमात्र मार्ग बताया है।
कामी क्रोधी लालची तिनसे भक्ति न होए।
भक्ति करे कोई सूरमा जात वर्ण कुल खोए।।
भक्ति करे कोई सूरमा जात वर्ण कुल खोए।।
जाति वर्ण कुल ये सब साकार शरीर के साथ जुड़े हैं। लालच क्रोध कामनाएॅं इन सबका भाव समाप्त करके ही भक्ति हो सकती है। दूसरे प्रण में हुजूर माता जी ने बताया कि जाति वर्ण से ऊपर उठकर ही भक्ति का आनन्द प्राप्त कर सकेंगे।
पुरातन ग्रंथ शिव संहिता में 57वें श्लोक में भी यही लिखा हैः-
यावत् वर्णम् कुलम् सव्र्वम् तावत् ज्ञानम् न जायते।
ब्रह्मज्ञानम् पदम् ज्ञात्वा सव्र्व वर्ण विवर्जितः।।
ब्रह्मज्ञानम् पदम् ज्ञात्वा सव्र्व वर्ण विवर्जितः।।
इसमें स्पष्ट कर दिया कि हृदय में ज्ञान तभी बसता है जब जाति वर्ण का मान नहीं रहता। ज्ञान प्राप्त करके निरंकार से जुड़कर वह भी निरंकार ही हो जाता है। शिव संहिता के 30वें श्लोक में लिखा हैः-
निराकार मनो यस्य निराकार समो भवेत्।
जिस व्यक्ति का मन निराकार में है, वह निराकर के समान ही होता है।
तस्मात् सव्र्वप्रयत्नेन साकाराशु परित्यजेत्।
इसलिए सारे यत्नों से साकार (भाव) को त्याग देना चाहिए।
सत्गुरु ने दया करके इस विराट के दर्शन कराए तो जाना कि निरंकार के सिवाए और कुछ है ही नहीं। जो भी साकार रूप नजर आता है उसका अपना अस्तित्व कुछ है ही नहीं। निरंकार जब चाहे इस समाप्त कर दे। दिखाई देने वाली हर वस्तु ने मिट जाना है।
जिन्हें यह ज्ञान प्राप्त हो जाता है वे सब में निरंकार रूप ही जानकर चरणों में नमस्कार करते हैं। आदि शंकराचार्य जी ने 526 ई0 में जो दोहा लिखा था, वह भी एक दूसरे के चरण स्पर्श की ओर प्रेरित करता है।
आकाशात् पतति तोयम् यथा गच्छति सागरम्।
जैसे आकाश से पानी गिरता है और सागर की ओर जाता है। बादल कहीं भी बरसें। पहाड़ों, नदियों, नालों या भूमि पर पहॅुंचना उसे सागर में ही है। इसी प्रकार
सर्व देह नमस्कारः तथा केशवम् गच्छति।।
वैसे ही सब देह को नमस्कार केशव (परमात्मा) को पहुॅंचती है। कहीं नहीं लिखा कि आयु विशेष या किसी जाति विशेष को की गई नमस्कार ही पहुॅंच सकती है।
भाग्यशाली है हम हमें ऐसा सत्गुरु मिला है। जिनका एक-एक बोल मंत्र है। इन्होंने उजाला देकर जो हमारी सोच बदल दी, हमें जीने की राह सिखाई रामचरित मानस में लिखा हैः-
उमा जे राम चरण रत विगत काम मद् क्रोध।
देखहिं प्रभुमय जगत कहिंसन करहिं विरोध।।
देखहिं प्रभुमय जगत कहिंसन करहिं विरोध।।
हे पार्वती। जो प्रभु राम के चरणों से जुड़ जाते है, उनका काम क्रोध, लालच सब समाप्त हो जाता है। सारा जगत ही प्रभुमय दिखता है, वैर किससे करें। सबमें तो निरंकार नजर आता है। श्री मद्भगवद्गीता में भी श्री कृष्ण ने जो संदेश दिया
यः माम् पश्यति सर्वत्र सर्वम् च मयि पश्यति।
तस्य अहम् न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।। 6-30
तस्य अहम् न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।। 6-30
जो मुझे सब जगह देखता है वह सबमें मुझे देखता है। पहले ज्ञान प्राप्त करने की बात कही है कि जब सर्वत्र निराकार दिखाई देता है, फिर हृदय में यह भाव बनते है। सब में परमात्मा का रूप नजर आने लगता है। ऐसे में भक्त का भगवान से अटूट रिश्ता हो जाता है। श्री कृष्ण जो कह रहे हैं कि ऐसे भक्त से मैं दूर नहीं होता, वो भी मुझसे दूर नहीं होता।
सत्गुरु माता जी कृपा करें, यह जो दात बख्शी है। इसका एहसास हर पल बना रहे और सुखों के धाम में सदा रहें।
जिस दे दिल निरंकार दा वासा।
हर दम वसे सुख दे धाम।।
हर दम वसे सुख दे धाम।।
जिस दे दिल निरंकार दावासा अवतार करे लख लख प्रणाम।
Today Business News India TodayInternational News And Breaking News
Bihar Breaking & latest News in Hindi Today
Bihar News In Hindi Today
English News Headlines
Entertainment News India
Top Environment News
Latest Jharkhand News in Hindi
No comments:
Post a Comment